तो आइए जानते हैं कि क्या सच में चीन को मिली स्थाई सदस्यता की सीट भारत की देन है?
ये सच है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में चीन की स्थाई सदस्यता की सीट भारत की ही देन है। बात 1950 के दशक से शुरू होती है। तब 26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतांत्रिक राष्ट्र बना, और उससे कुछ महीने पहले चीन (21 सितंबर 1949) को जनवादी चीन बना। इस दौरान भारत चाहता था कि चीन संयुक्त राष्ट्र का स्थाई सदस्य बने।
भारत पाकिस्तान को इस्लामिक देश के तौर पर और चीन को कम्युनिस्ट देश के तौर पर मान्यता देने वाला प्रथम देश (पहले गैर कम्युनिस्ट देश) था। उस वक्त सुरक्षा परिषद की चार सीटों पर अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस काबिज थे। जबकि पांचवीं सीट खाली थी।
हालांकि सभी पश्चिमी देश चाहते थे कि ये सीट भारत को मिले। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर चीन को स्थाई सदस्यता दे दी जाती तो परिषद में दो कम्युनिस्ट देश हो जाते। लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन की वकालत की थी। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब तक भारत के चीन के साथ रिश्ते अच्छे थे।
ताइवान को मिली थी चीन की सीट
ये वह समय था जब च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच गृहयुद्ध चल रहा था। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस कम्युनिस्टों से घृणा करते थे। चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी चीन सरकार को दी गई। लेकिन अंत में चीनी कम्युनिस्टों की जीत हुई। 1 अक्तूबर 1949 को चीन में उन्हीं की सरकार बनी।
इसके करीब एक साल बाद नेहरू को उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला। जो उस वक्त अमेरिका में भारत की राजदूत थीं। उन्होंने खत में लिखा था कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है।
वहीं इस पत्र के जवाब में नेहरू नेहरू ने लिखा कि भारत का चीन को सीट ना देना उसका अपमान होगा और भारत-चीन के रिश्ते पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा और इस फैसले से (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय खुश नहीं होगा लेकिन इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते। हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे।
इसके पीछे का एक कारण ये भी है कि उस वक्त दलाई लामा ने भारत में शरण नहीं ली थी और ना ही दोनों देशों के बीच कोई युद्ध जैसी स्थिति थी।
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